कुण्डलिनी शक्ति :-  अनाहत चक्र :  

anahath chakra 2

अनाहत चक्र : रंग : हरा , सम्बन्ध तत्व : वायु , प्रभाव : प्रेम , बीज मंत्र : यं | वक्ष स्थल के मध्य और ह्रदय के निकट इस चक्र का स्थान है जिसे अनाहत चक्र कहते हैं |जीव रुपी आत्मा का निवास इस चक्र में बतलाया गया है | क्रिश्चियन इसे हरे गुलाब के फूल के रूप में जानते हैं | इसके अधिपति देवता ईशान हैं | अनाहत चक्र वायु तत्व प्रधान चक्र है , इसके जाग्रत होने पर श्वांस क्रिया पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है , श्वांस नाभि से आती है | जो योगी होते हैं उनकी श्वांस नाभि से उठती है | यह शरीरस्थ कुण्डलिनी चैतन्यता का परिचायक है | जीवन तो चलता रहता है परन्तु नाभि की गतिशीलता नहीं रहती है | मणिपुर चक्र के जाग्रत होने के पश्चात नाभि पुनः चैतन्य हो जाती है , श्वांस संतुलित हो जाती है , जिसके फलस्वरूप व्यक्तित्व का पूर्ण रूपांतरण होता है | मणिपुर चक्र से आगे यात्रा करते हुये कुण्डलिनी शक्ति अनाहत चक्र में सुसुप्त शक्तियों पर प्रहार कर उन्हें जाग्रत करती है | इस शक्ति के पूर्ण स्पंदन प्राप्त होने पर व्यक्ति को भूत भविष्य व् वर्तमान सब स्पष्ट हो जाता है | इससे स्पष्ट होता है कि इस चक्र के जाग्रत होने पर ही व्यक्ति की आत्मा का परब्रह्म से प्रथम परिचय होता है , जिसके फलस्वरूप वह त्रिकाल दर्शिता प्राप्त कर लेता है अर्थार्त वह त्रिकाल दर्शी हो जाता है |
ह्रदय क्षेत्र में स्थित इस अनाहत चक्र के सिन्दूरी वर्ण के बारह दल होते हैं | यह वायु तत्व प्रधान चक्र है और इसके जाग्रत होने पर दिव्य नाद का श्रवण होता है | ह्रदय क्षेत्र पर बिना किसी चोट के शब्द का गुंजरन होता है , इसी से इसे अनाहत कहा गया है | इस द्वादश दल कमल के मध्य में धुंए वाले बादल के समान रंग वाला षट्कोणीय वायु क्षेत्र है | इसके मध्य में श्याम वर्णीय पवन बीज यं मर्ग पर आसीन हैं | यं बीज के भीतर दया का सागर हंस विराजमान हैं , जोकि अंतरात्मा रुपी ईश्वर का प्रतीक हैं | वायु बीज के मध्य में यह हंस हं – सः अर्थार्त श्वांस – प्रश्वांस के शब्द गुंजरन का भी प्रतीक है | षट्कोण वायु क्षेत्र के ऊपर चक्र की पीतवर्णी चतुर्भुजी देवी काकिणी देवी हैं | वह अपने हाथों में पाश और कपाल धारण किये हुये हैं एवं बाकी दो हाथों से अभय मुद्रा प्रदर्शित हो रही है | इस प्रकार के स्वरुप का ध्यान कुण्डलिनी साधक के लिए आवश्यक होता है | जब अनाहत चक्र सम्बन्धी मंत्र जप संपन्न हो जाए तो उसके पश्चात नित्य उपरोक्त प्रकार से ह्रदय क्षेत्र पर अनाहत रूप ध्यान करें | ये बीज और सिन्दूर वर्ण द्वादश कमल तथा चक्र के देवी – देवताओं का अनुभव करें | नेत्र मूँद कर ध्यान करने से जागरण क्रिया में गति आती है | ध्यान के पश्चात शवासन में लेटकर विश्राम करना चाहिए |
दल के बीजाक्षरों से सम्बंधित उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं : –
कं : इस दल के जागरण से समाधि प्रारम्भ हो जाती है |
खं : इस दल के जागरण से आत्मा स्वः की अवस्था से निकल कर मह में पहुँच जाती है और साधक को ब्रह्म की निकटता का अनुभव होने लगता है |
गं : इस दल के जागरण से किसी भी व्यक्ति का भूत काल दिखाई दे जाता है |
घं : इस दल के जाग्रत होने पर हजारों मील दूर वर्तमान में घटित हो रही घटनाओं को सूक्ष्मता से देख सकते हैं |
डं : इस दल के जाग्रत होने पर व्यक्ति को भविष्य का ज्ञान होने लगता है |
चं : इस दल के जाग्रत होने पर व्यक्ति अथवा साधक को काल का ज्ञान हो जाता है |
छं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक किसी भी व्यक्ति के मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को जान सकता है तथा उन विचारों में अपने अनुसार परिवर्तन भी कर सकता है |
जं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक को परकाया प्रवेश का ज्ञान होने लगता है |
झं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक को ब्रहमांड भेदन का ज्ञान हो जाता है एवं साधक किसी भी लोक में आने जाने की क्षमता प्राप्त कर लेता है |
नं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक ब्रहमांड के किसी भी भाग की घटना या द्रश्य को देख सकता है |
टं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक को कायाकल्प करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थार्त साधक सदा चिरयौवन को प्राप्त होता है |
ठं : इस दल के जाग्रत होने पर साधक के शरीर से एक दिव्य गंध प्रवाहित होने लगती है, जिससे कोई भी यहाँ तक कि पेड़ पौधे भी उल्लासित हो जाते है | जागरण उसी किया जाता है जो सोया हुआ हो जिसका कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है , परिस्थितियां उसे जिस प्रकार जिधर बहा ले जाएँ वह बह जाता है , वातावरण के अनुसार बदल जाता है , जाग्रति नहीं होती , उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है | विश्वास इसलिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह सोया हुआ है | जब तक वह स्वयं भी अपने ऊपर विश्वास नहीं कर सकता है | इसी को अज्ञानता में प्राप्त नित्य प्रति के अनुभवों को योगीजन स्वप्न कहते हैं | इस स्वप्न से बाहर निकलने के पश्चात ही जगत में प्रवेश संभव है , एक जाग्रत व्यक्ति या साधक के रूप में इसे ही कुण्डलिनी जागरण कहते हैं |