कुण्डलिनी शक्ति :- मूलाधार चक्र :   

मूलाधार चक्र

                            मूलाधार चक्र

मूलाधार चक्र : रंग – लाल , सम्बन्ध तत्त्व : पृथ्वी, प्रभाव : सुरक्षा सम्बन्धी, बीज मंत्र : लं , | यह चक्र पुरुषों में मेरुदंड के सबसे नीचे तथा गुदा के समीप रीढ़ खंभ में स्थित होता है | महिलाओं में यह डिम्बाशय के बीच में होता है | यह गुदा मूल से थोडा ऊपर और उपस्थ मूल के नीचे होता है | इसके अधिपति देवता ब्रम्हा हैं | पृथ्वी बीज का स्वरुप है एवं आधार पदम् है | शारीरिक शक्ति का आधार तत्व है | मानव देह के गुह्र्देश से दो अंगुल ऊपर और लिंगमूल से दो अंगुल नीचे चार अंगुल विस्तृत जो योनी मंडल विधमान है उसके ऊपर ही मूलाधार दल अवस्थित है | जिस प्रकार पृथ्वी व्यक्ति का आधार है उसी प्रकार मानव की जीवनी शक्ति का आधार मूलाधार चक्र है | यह कुण्डलिनी जागरण क्रिया में पहला चक्र होता है , जिस पर अधिकांश शक्तियां केन्द्रित होती हैं | किन्तु उन शक्तियों का स्पंदन न्यून होता है |
मूलाधार चक्र चार रक्तवर्णीय दल युक्त यज्ञ है , जिसके दलों पर स्वर्णिम वर्ण में,  व, श, ष , स, अक्षर हैं | पद्य के बीज कोष में चोकोर धरामंडल है ,जो पीले रंग का है और अष्ट शूल युक्त है | उस धरामंडल के बीच में धरा बीज लं होता है जो चतुर्भुज, एरावत हाथी पर आरूढ़ और हाथ में वज्र लिये हुये है | धरा बीज लं के बिंदु में शिशु रूप ब्रह्म हैं जो चतुर्भुज और चतुर्भुज रक्तवर्ण और हाथों में दंड, कमंडल, रुद्राक्ष माला धारण किये हुये हैं और एक हाथ से अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रहे हैं | उसके बीजकोष के भीतर रक्तवर्ण के पदम् के ऊपर मूलाधार चक्र की अधिष्ठात्री देवी शक्ति डाकिनी हैं जो रक्त वर्ण और चतुर्भुज हैं | अपने हाथों में शूल कपाल युक्त दंड , खडग , तथा सुरापान का कटोरा लिये हुये हैं | बीजकोष के मध्य में विधुत के सामान त्रिकोण है , उसके भीतर काम वायु तथा काम बीज व् रक्त वर्ण हैं | उसके ऊपर श्याम वर्ण का स्वयं भ्रू लिंग है | उस लिंग के चारों और साढ़े तीन वलय में कुण्डलिनी शक्ति है जो लिंग मुख के ऊपर अपना मुख रखे हुये है | उन सबके ऊपर दंड के आकार में लिंग के आगे चित कला स्थित है |
वीर्य कोष में सुसुरा पान करनी है , तांत्रिक रेखांकन के आधार पर अधोमुखी त्रिभुज योनी का प्रकटीकरण करता है | यह योनी रत वर्ण और यौवन पूर्ण है , उसमें काम वायु और काम बीज हैं | उसमें काम के उद्गम से उल्लसित स्वयं भ्रू लिंग है , उसे साढ़े तीन कुण्डलिनी में लपेटे हुये मन की शक्ति है जो लिंग मुख को भी बंद किये हुये है | योनी के भीतर काम पूर्ण लिंग होते हुये भी अगर मन की शक्ति से लिंग को बाँध दो तो मेरुदंड के मार्ग से चिन्मय आनंद की प्राप्ति होती है |
लं अक्षर को इन्द्र का बीज रूप माना गया है चूँकि इन्द्र ने सहस्त्रों कामनियों को भोगा है और सहस्त्रयोनी को सहलाया है | इन्द्रिय स्थल को इसी आशय में लं अथवा लिंग कहा जाता है | बिंदु को वीर्य कहा है जो वीर्य से युक्त है उसमें चमक – दमक स्वाभाविक है | प्रत्येक व्यक्ति अक्षर आत्मा है और उसकी चमक वीर्य से युक्त होने पर खिल उठती है |