कुण्डलिनी शक्ति :-  आज्ञा चक्र :  

agya chakra 2

आज्ञा चक्र : रंग : गहरा नीला , सम्बन्ध तत्व : आकाश , प्रभाव : अतींद्रयज्ञान , बीज मंत्र : | यह चक्र दोनों भोहों के मध्य स्थित है | इसका स्थान भ्रकुटी के मध्य लगभग ढाई इंच भीतर होता है | इसके अधिपति देवता स्वयं भगवान् शिव हैं | इडा , पिंगला , सुषुम्ना , अलग अलग चलकर भी इसी स्थान पर आकर मिलती हैं | त्राटक के द्वारा आज्ञा चक्र को जाग्रत किया जाता है | विशुद्ध चक्र के पश्चात जब साधक निरंतर साधना संपन्न करता हुआ कुण्डलिनी साधना के अगले क्रम में प्रविष्ट होता है , तब कुण्डलिनी शक्ति आगे बढ़ते हुये दोनों भोहों के बीच आज्ञा चक्र पर पहुँचती है | यह आज्ञा चक्र छठा द्वार है , जहाँ पर कुण्डलिनी चक्र आकर रुकता है | आज्ञा चक्र पर स्थित साधक किसी के भी जीवन में परिवर्तन कर सकता है, किसी को भी श्राप दे सकता है या वरदान भी दे सकता है तथा किसी को भी रंक से राजा बना सकता है और सामान्य से भी सामान्य व्यक्ति को भी एक अत्यंत तेजस्वी , पराक्रमी और महान व्यक्ति बना सकता है | उसके मन में उठा कोई भी विचार अधुरा नहीं रह सकता है बल्कि वह विचार तो एक आज्ञा होती है , जिसे मानने के लिए प्रकृति भी बाध्य हो जाती है | इस चक्र का नाम आज्ञा चक्र रखने के पीछे यह रहस्य है की आज्ञा चक्र वह क्षेत्र है जहाँ से शरीर के विभिन्न अंगों अवयवों को कार्य करने की आज्ञा दी जाती है | इसका स्थान है तालू और कंठ में प्रवेश करके शुभ यज्ञ , जो दोनों के मध्य है में कुण्डलिनी पहुंचती है | ह , क्ष अक्षरों सहित यह दो दल वाला है | यही मन का स्थान है , आज्ञा चक्र उस विशुद्ध चक्र स्थल से ऊपर है तथा यहीं पर द्विदल यज्ञ हैं | अक्षर हं तथा क्षं सोंदर्य और वर्ण में कुछ बदले हुये हैं | यह क्षेत्र पीठ है | एक साधक नियमित रूप से एक ही साधिका को अपना साथी बनाये तो अधिक लाभ में रहेगा | अगर व्यक्ति अपनी पत्नी को प्रेमिका और साधिका के रूप में ले तो उसके परिवार की अधिक उन्नति हो सकती है | मूलाधार के विवर में कई करोड़ सूर्य के प्रकाश के समान दैदीप्यमान प्रभा वाली कुण्डलिनी को जो व्यक्ति धारण करता है वह अचानक ही सब विधाओं का ज्ञाता , पुरुषों में इन्द्र तथा वाणी का राजा हो जाता है | वह सदैव के लिए आरोग्य हो जाता है | उसकी अंतरात्मा अत्यंत आनंदपूर्ण हो जाती है | आज्ञा चक्र का साधक बहुत सी सिद्धियाँ अनजाने में प्राप्त कर लेता है और धीरे धीरे प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है | वह दीर्घ आयु तथा ब्रह्मा , विष्णु और रूद्र की शक्तियां प्राप्त कर लेता है | बीजकोष एक आधार है, उसके अंतर्गत हाकिनी देवी हैं | उसके ऊपर अधोमुखी त्रिकोण अर्थार्त योनी है , उसके भीतर लिंग है, जो सम्भोग मुद्रा में है , परन्तु उसके ऊपर मनस हावी है अर्थार्त वह मन के द्वारा संयम में है | मूलाधार का लिंग पीले वर्ण का था | आज्ञा चक्र तक साधक उत्तरोत्तर सतोगुणी होता जाता है और आज्ञा चक्र तक पहुंचते पंहुचते उसका सम्भोग वासना रहित हो जाता है | अभ्यास द्वारा साधक अग्नि के कण अथवा ज्योति के स्फर्लिंगों का दर्शन करता है | यह दर्शन चक्र के मध्य और योनी के ऊपर के रिक्त स्थान आकाश क्षेत्र में स्पष्ट चमकते हैं | बाईं एडी गुदा के सामने और दांयी एडी बाएं पैर के ऊपर रखकर शरीर सीधा करके बैठें , जिससे गर्दन और सिर एक लाइन में सीधे रहें | तत्पश्चात अपनी जीभ और ओष्ठ से कौए के चोंच के समान मुद्रा बनायें | उसी मुद्रा में उदर में हवा खींचकर भर लें फिर कानों के छिद्रों को अन्गूंठों से , और आँखों को तर्जनी से , नथुनों को मध्यमा से और मुहँ शेष अँगुलियों से बंद कर लें और भरी हुयी वायु को कुम्भक करें | उक्त मुद्रा को योनी मुद्रा कहना उचित नहीं है , क्योंकि इसमें कहीं भी कोई योनी सम्बन्धी बात नहीं है | योनी मुद्रा केवल सम्भोग मुद्रा है , जो मन को बांधने की सबसे सरल मुद्रा है | जब व्यक्ति अत्यंत आनंद देने वाले स्थान पर लीं हो जाता है , अर्थार्त वीर्य रक्षण के बिंदु के पास होता है तब कुम्भक द्वारा क्षरण को रोक देने से आनंदातिरेक में अर्धमुदित आँखों में स्फुर्लिंगों के दर्शन अभ्यासी के मनश्चक्षुओं में होते हैं | श्वांस प्रश्वांस के प्रभाव से मन इधर उधर के विभिन्न विषयों पर भटकता है | हंस के रूद्र (कुम्भक) करने से मन भी रुक जाता है | इसके द्वारा जब मन ब्रह्म में भ्रमण करता है , तब जीभ खेचरी ग्रंथि को चाटती है , इसलिए खेचुरी मुद्रा को सभी नमस्कार करते हैं | खेचुरी मुद्रा द्वारा योगी लोग अपनी जीभ से खेचरी ग्रंथि को चाट चाट कर उसे ऐसा कर देते हैं कि उसमें से रस टपकने लगे और रस को अमृत मानकर पान करते हैं | यह कच्चा अमृत है जब अमृत की बूँद स्वतः ही निकलकर खेचरी ग्रंथि पर आ जाए तब उसे चाट लेना ही उचित है , न की रूद्र ग्रंथि को रगड़कर खेचरी मुद्रा द्वारा निकाले कच्चे रस को अमृत समझ बैठना | हमें समझना चाहिए की शिव और शक्ति बंधन्युक्त होकर मकार रूप में पर बिंदु के आकार में स्थित हैं | इसलिए सीधे शब्दों में कहिये की शिव और शक्ति की सम्भोग मुद्रा ही बिंदु की स्थिति है |