प्रार्थना क्या है, और कैसे करें ?

प्रार्थना एक धार्मिक क्रिया है जो ब्रह्माण्ड के किसी ‘महान शक्ति’ से सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करती है।प्रार्थना व्यक्तिगत हो सकती है और सामूहिक भी।
इसमें शब्दों (मंत्र, गीत आदि) का प्रयोग हो सकता है या प्रार्थना मौन भी हो सकती है प्रार्थना हमें अपने आंतरिक आत्मा के साथ संबंध स्थापित करने में मदद करती है।हृदय से की गई प्रार्थनाएं हमारे विचारों,भावनाओं और कार्यों को शुद्ध करती हैं;प्रार्थना आनंद और शांति की एक उत्कृष्ट भावना प्रदान करती हैं …!सच्ची प्रार्थना वही है, जो निःस्वार्थ भाव से पूर्ण समर्पण के साथ की जाए।
प्रार्थना अर्थात्, आत्मा की आवाज परमात्मा तक पहुंचाने की संदेशवाहक है।प्रार्थना आत्म शुद्धि का आवाहन है।प्रार्थना मानवीय प्रयत्नों में ईश्वरतत्व का सुन्दर समन्वय है प्रार्थना आत्मविश्वास का पहला पायदान है।प्रार्थना से बड़ा बल, विश्वास, प्रेरणा, आशा और सही मार्गदर्शन मिलता है।
जब हम प्रार्थना करते हैं तो अपने अहम का दमन करते हैं प्रार्थना करने से हमारे मन से कलुषित विचार दूर होते जाता है।प्रार्थना हमें मनुष्यता सिखाती है। प्रार्थना पश्चाताप का चिह्न व प्रतीक है।
यह हमें अच्छा और पवित्र बनने के लिये प्रेरणा देती है।प्रार्थना धर्म का सार है।प्रार्थना याचना नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार है।प्रार्थना हमारी दुर्बलताओं की स्वीकृति नहीं, प्रार्थना हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान है।
प्रार्थना में परमेश्वर की प्रशंसा, स्तुति, गुणगान, धन्यवाद, सहायता की कामना, मार्गदर्शन की ईच्छा, दूसरों का हित चिंतनआदि होते हैं।प्रार्थना नम्रता की पुकार है।प्रार्थना आत्मशुध्दि व आत्म निरीक्षण का आह्वान है।प्रार्थना विश्वास की आवाज या प्रतिफल है।प्रार्थना हमें संगठित करती हैं।
प्रार्थना मनुष्य की श्रेष्ठता की प्रतीक है, क्योंकि यह उसके और परमात्मा के घनिष्ठ संबंधों को दर्शाती है।प्रार्थना से आत्म सत्ता में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्य तत्व झलकने लगता है।हर एक धर्म में प्रार्थना का बड़ा महत्व है।सभी धर्म-गुरुओं, ग्रंथों और संतों ने प्रार्थना पर बड़ा बल दिया है।उन्होंने प्रार्थना को परम-पद प्राप्ति का, मोक्ष का द्वार कहा है।
आज का मनुष्य औरों की अपेक्षा अपने प्रति अधिक अविश्वसनीय हो गया है।उसने अपने हृदय में द्वेष, द्वन्द्व, छल-कपट, ईर्ष्या और मत्सरता के इतने बीज बो लिए हैं कि उसकी सुगन्धित हृदय-वाटिका विषैली वनस्थली बन गई है।
इसका मुख्य कारण है उसकी अनियंत्रित कामनायें।प्रभु से प्रार्थना करने के लिए हाथ नहीं, बल्कि हृदय फैलाने की आवश्यकता है।प्रार्थना में जब सांसारिक वासनाओं का,कामनाओं का अभाव होगा तो वही सच्ची प्रार्थना होगी और वही प्रार्थना पूर्ण होगी।
प्रार्थना का अर्थ है – परम शांति, परम आश्रय।अतः हमें नियमित प्रार्थना करनी चाहिए।प्रार्थना के दिव्य स्वर हमारे अन्त: तिमिर का भंजन कर गहन शान्ति का निर्माण करते हैं।
प्रार्थना की ध्वनि-तरंगों से आविर्भूत स्पन्दनों की दस्तक हमारे अन्तर-कपाट खोलने में सहायक होती है।प्रार्थना हमारे हृदय के भावों को शुद्ध करती है।मन के विचार, अनुक्रियाएँ और हमारे सम्पूर्ण संकल्पों में शुभता भरने का कार्य प्रार्थना ही करती है।निरंतर प्रार्थना करने से हममें उन्नत भाव-साम्राज्य, सघन-जागरूकता, अन्तःकरण की पवित्रता और जीवन के प्रत्येक आयाम पर ईश-अनुग्रह की अनुभूति होने लगती है।प्रार्थना प्रभु प्राप्ति का सरलतम उपाय है।
हमारे अन्तःकरण में अपार ऊर्जा का भंडार है।उसमें अनन्त शक्तियाँ और अतुल-विपुल सामर्थ्य है।प्रार्थना के पावित्र भाव-बल से हम अपनी अन्तः सम्पदा का बोध कर पाते है।ईश्वर से एकता स्थापित कराने वाली प्रार्थना हमारे लिए एक ऐसा साधन है कि हम इस साधना से पूर्णता को उपलब्ध हो सकते हैं।*
इसलिए ईश्वरीय साक्षात्कार के लिए जो सहज निमित है, वह है – प्रार्थना।जब प्रार्थना करते हैं तो हमारे मन से कलुषित विचार दूर होते चले जाते हैं। प्रार्थनाएं हमें बल और संबल प्रदान करती है।