कुण्डलिनी  शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्यंव को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है ।कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है ।परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है ।अपने शरीर मन बुद्धि व् सब कर्मेन्द्रियों व् ज्ञानेन्द्रियों को विकिसित कर कैसे उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सर्जन करने पूर्णता की ओर ले जाने और   अपूर्णता के संहार में लगाना है । कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं । कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर हंस रहे होते हैं । कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है ।इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं ।इसलिए अनहोनियों से न घबराकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग की ओर अग्रसर रहना चाहिए ।गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा ।कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्या न  बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है ।ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है ।यह साधना उन लोगों  के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं ।गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं । ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से संपन्न किया गया  शेष बंध और कुम्भक समान रहे । सम्भोग मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए आचार्यों ने विभिन्न की काम मुद्राएँ बाजीकरण विधियाँ तथा तान्त्रिंक औषधियां खोज डालीं । इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्ग तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे ।इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया ।सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा ।रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है । मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा ।अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा  अति आवश्यक है ।कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।

 

39 thoughts on “kundalini shakti jagaran kyon karen

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