Ramayan

 

 

 

 

 

दोहा

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।

अति लघु रुप धरौं निसि नगर करौं पइसार ।। 3 ।।

चौपाई

मसक समान रुप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ।।

नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ।।

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ।।

मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं ढनमनी ।।

पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ।।

जब रावनहि ब्रह्य बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।

बिकल होसि तैं कपि के मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ।।

तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ।।

दोहा

 तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ।। 4 ।।

चौपाई

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ।।

गरल सुध रिपु करहिं मिताई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ।।

गरूड़ सुमेरू रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ।।

अति लघु रुप धरेउ हनुमाना । पैठ नगर  सुमिरि भगवाना ।।

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ।।

गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहिं ।।

सयन किएँ देखा कपि तेही । मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ।।

भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।।

दोहा

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ ।। 5 ।।

चौपाई

लंका निसिचर निकर  निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ।।

मन महुँ तरक करैं कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ।।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ।।

एहि सन हठ करिहउँ पहिचानी । साधु  ते होइ न कारज हानी ।।

बिप्र रूप धरि  बचन सुनाए । सुनत बिभीषन उठ तहँ आए ।।

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ।।

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरें हृदय प्रीति अति होई ।।

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ।।  ।।

दोहा

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम  ।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।। 6 ।।

चौपाई

सुनहु पवनसुत  रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ।।

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ।।

तामस तनु कछु साधन  नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ।।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ।।

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तौ तुम्ह मोहि दरसु हठ दीन्हा ।।

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती । करहिं सदा संवक पर प्रीती ।।

कहहु कवन मैं  परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।।

प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।

दोहा

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।। 7 ।।

चौपाई

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी । फ़िरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ।।

एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य  बिश्रामा ।।

पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ।।

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ।।

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ।।

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन असोक सीता रह जहवाँ ।।

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठिही बीति जात निसि जामा ।।

कृस तनु सीस जटा एक बेनी । जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी ।।

 

————————————  आगे पढ़ें —————–