Ramayan

 

 

 

 

 

दोहा

 निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ।। 8 ।।

चौपाई

तरू पल्लव  महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ।।

तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ।।

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ।।

कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ।।

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ।।

तृन धरि  ओट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति  परम सनेही ।।

सुनु दसमुख खेद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ।।

अस मन समुझु कहति जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ।।

सठ सूनें हरि आनेहि  मोही । अधम  निलज्ज लाज नहिं तोही ।।

दोहा

 आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।

परूष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ।। 9 ।।

चौपाई

सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ।।

नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ।।

स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ।।

सो भुज  कंठ  कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ।।

चंद्रहास हरू मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ।।

सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरू मम दुख भारा ।।

सुनत बचन पुनि मारन धारा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ।।

कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई

मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं  मारबि काढ़ि कृपाना ।।

दोहा

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि  बृंद

सीतहि  त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ।। 10 ।।

चौपाई

त्रिजटा  नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ।।

सबन्हौ बोलि सुनाएसि  सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ।।

सपनें  बानर  लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ।।

खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित  सिर खंडित भुज बीसा ।।

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ।।

नगर फ़िरी रघुबीर  दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई  ।।

यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि  सत्य गएँ दिन  चारी  ।।

तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता  के चरनन्हि  परीं ।।

दोहा

जहँ तहँ सकल तब सीता कर मन सोच ।

मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ।। 11 ।।

चौपाई

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ।।

तजौं देह करू बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ।।

आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ।।

सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सुल सम बानी ।।

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ।।

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी  ।।

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ।।

देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ।।

पावकमय ससि स्त्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ।।

सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करू हरू मम सोका ।।

नूतन किसलय अनल समाना । देहि  अगिनि जनि करहि निदाना ।।

देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कलप सम बीता ।।

सोरठा

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब ।

जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठ कर गहेउ ।। 12 ।।

चौपाई

तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ।।

चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ।।

जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ।।

सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ।।

रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ।।

लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ।।

श्रवनामृत  जेहिं कथा सुहाई । कही सो प्रगट होति किन भाई ।।

तब हनुमंत निकट चलि  गयऊ । फ़िरि बैठ मन बिसमय भयऊ ।।

राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करूनानिधान की ।।

यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि  राम तुम्ह कहँ सहिदानी ।।

नर बानरहि संग कहु कैसें । कही कथा भइ संगति जैसें ।।

 

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