Ramayan

 

 

 

 

 

दोहा

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंघु कर दास ।। 13 ।।

चौपाई

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ।।

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयहु तात मो कहुँ जलजाना ।।

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज  सहित सुख भवन खरारी ।।

कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई  ।।

सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ।।

कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता ।।

बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ।।

देखि  परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ।।

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ।।

जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ।।

दोहा

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।

अस कहि कपि  गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ।। 14 ।।

चौपाई

कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ।।

नव तरू किसलय मनहुँ  कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ।।

कुबलय बिपिन  कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ।।

जे  हित रहे  करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ।।

कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि  कहौं यह जान न कोई ।।

तत्व प्रेम कर मम अरू तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ।।

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं ।  जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ।।

प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ।।

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरू राम सेवक सुखदाता ।।

उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ।।

दोहा

 निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।

जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ।। 15 ।।

चौपाई

जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ।।

राम बान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधन की ।।

अकहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ।।

कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ।।

निसिचर मारि  तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ।।

हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधन अति भट बलवाना ।।

मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ।।

कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ।।

सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ।।

दोहा

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥16 ॥

चौपाई

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना   ॥

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना   ॥

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता   ॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा  ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी   ॥

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं   ॥

दोहा

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु  ॥17 ॥

चौपाई

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा  ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे   ॥

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी  ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे   ॥

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना  ॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे   ॥

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा  ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा   ॥

 

——————————-  आगे पढ़ें  —————